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सिन्धु॒र्न क्षोदः॒ शिमी॑वाँ ऋघाय॒तो वृषे॑व॒ वध्रीँ॑र॒भि व॒ष्ट्योज॑सा। अ॒ग्नेरि॑व॒ प्रसि॑ति॒र्नाह॒ वर्त॑वे॒ यंयं॒ युजं॑ कृणु॒ते ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sindhur na kṣodaḥ śimīvām̐ ṛghāyato vṛṣeva vadhrīm̐r abhi vaṣṭy ojasā | agner iva prasitir nāha vartave yaṁ-yaṁ yujaṁ kṛṇute brahmaṇas patiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सिन्धुः॑। न। क्षोदः॑। शिमी॑ऽवान्। ऋ॒घा॒य॒तः। वृषा॑ऽइव। वध्री॑न्। अ॒भि। व॒ष्टि॒। ओज॑सा। अ॒ग्नेःऽइ॑व। प्रऽसि॑तिः। न। अ॑ह। वर्त॑वे। यम्ऽय॑म्। युज॑म्। कृ॒णु॒ते। ब्रह्म॑णः। पतिः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:25» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:4» मन्त्र:3 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (शिमीवान्) प्रशस्त कर्मयुक्त (ब्रह्मणः,पतिः) वेद का रक्षक विद्वान् पुरुष (क्षोदः) जलको (सिन्धुः,न) समुद्र जैसे अपने में लय करता (वध्रीन्) वा साधारण बैलों को (अभि) सन्मुख होके जैसे (वृषेव) अति बलवान् बैल मारता वैसे (ओजसा) बल से (घायतः) सत्य धर्म के नाशक शत्रुओं का नाश करता सत्य को (वष्टि) चाहता और (अग्नेरिव) अग्नि से जैसे (प्रसिति) बन्धन (वर्त्तवे) वर्त्तने के अर्थ (न,अह) नहीं रहता अर्थात् स्वाधीनता होती है वैसे (यंयम्) जिस-जिसको (युजम्) शुभ गुणयुक्त (कृणुते) करता है वह उसको सुखी करता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य पुरुषार्थी समुद्र के तुल्य गम्भीर धनाढ्य वृषभ के तुल्य बलवान् अग्नि के तुल्य शत्रुओं के जलानेवाले सत्य कामनायुक्त होते हैं, वे समस्त शिल्प विद्या को सिद्ध कर सकते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

यः शिमीवान् ब्रह्मणस्पतिः क्षोदः सिन्धुर्न वध्रीनभि वृषेवौजसा घायतो नाशं करोति सत्यं वष्टि। अग्नेरिव प्रसितिर्वर्त्तवे नाह भवति यंयं युजं कृणुते स तं तं सुखिनं करोति ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सिन्धुः) समुद्रः (न) इव (क्षोदः) जलम्। क्षोद इत्युदकना० निघं० १। १२ (शिमीवान्) प्रशस्तकर्मयुक्तः (घायतः) तं सत्यं हिंसतः। अत्र हन् धातोश्छान्दसो वर्णलोप इति तलोपो बाहुलकादौणादिको डण् प्रत्ययः (वृषेव) यथा बलिष्ठो वृषभः (वध्रीन्) वृद्धान् वृषभान् (अभि) आभिमुख्ये (वष्टि) कामयते (ओजसा) बलेन (अग्नेरिव) (प्रसितिः) बन्धनम् (न) निषेधे (अह) (वर्त्तवे) (यंयम्) (युजम्) (कृणुते) (ब्रह्मणः) (पतिः) ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः पुरुषार्थिनः सन्ति समुद्रवद्गम्भीरा धनाढ्या वृषभवद्बलिष्ठा अग्निवच्छत्रुदाहकाः सत्यकामाः स्युस्ते सर्वां शिल्पविद्यां साद्धुं शक्नुवन्ति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे पुरुषार्थी समुद्राप्रमाणे गंभीर, धनाढ्य, वृषभाप्रमाणे बलवान, अग्नीप्रमाणे शत्रूंचे दहन करणारी, सत्यकामनायुक्त असतात, ती संपूर्ण शिल्पविद्या सिद्ध करू शकतात. ॥ ३ ॥